(लेख) भारतीय राजनीति का कृष्णपक्ष

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राष्ट्रप्रथम-भारतीय राजनीति का कृष्णपक्ष
           ~पार्थसारथि थपलियाल~
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरिससतमानस के उत्तरकांड में एक चौपाई में लिखा है-
राजू कि रहइ नीति बिनु जाने।
अघ कि रहहिं हरिचरित बखाने।
भावार्थ:-परमात्मा को जानने वाले कहीं जन्म-मरण (के चक्कर) में पड़ सकते हैं? भगवान्‌ की निंदा करने वाले कभी सुखी हो सकते हैं? नीति बिना जाने क्या राज्य रह सकता है? श्री हरि के चरित्र वर्णन करने पर क्या पाप रह सकते हैं?
पांच राज्यों में विधान सभाओं के गठन के लिए चुनाव प्रचार जोरों पर है। विधायक बनने के लिए हर प्रत्यासी अपनी विजय के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जोर लगाना भी चाहिए। समय का मूल्यांकन राजनीति का पहला नियम है। इस नियम की परख मतदाताओं को भी करनी चाहिए। यही राजनीति में भी है। जो लोग आपको ऐश्वर्य और वैभव के ख्वाब दिख रहे हैं। किसी से नोट और किसी से वोट लेकर एक दूसरे को भरमा रहे हैं, उनको पहचाने वे धंधेबाज हो सकते हैं।
कभी आपने देखा!  कि कल तक जिन्हें नाक साफ करने की तमीज नही थी वे बहुत बड़े नेता कैसे बन गए? आखिर एक व्यक्ति जनप्रतिनिधि बनने के लिए अंधाधुंध पैसा क्यों खर्च करता है? क्या वह जन सेवा करना चाहता है? नही। भारत में 50 प्रतिशत लोग राजनीति में धंधेबाजी के लिए आते हैं। एक बार निर्वाचित होना काफी है उसके बाद धंधेबाजी कर अकूत संपदा। मैं नाम नही लेना चाहता हूँ ऐसे सफेद पोश आपके इर्दगिर्द सब जगह हैं। वेतन और भत्ते तो कौन पूछता है? अक्सर कृष्णपक्षी एक एम एल ए अपने क्ष्रेत्र में कराए जाने वाले काम पर स्वीकृत बजट में से 25 से 30 प्रतिशत ले लेता है। मंत्री बन जाये तो वारे न्यारे। ये कृष्णपक्षी खादी के चटख वस्त्रधारी नौकरशाही के साथ मिलकर करोड़ों रुपये कमाते हैं। इन धंधेबाजों का चरित्र सरकारी सर्किट हाउसेस में खूब चर्चित रहता है। इस चरित्र में भी ये कृष्णपक्षी आकंठ डूबे रहते हैं। आदम गोंडवी का शेर है-
काजू भुने प्लेट में, व्हिस्की गिलास में
उतरा है राम राज विधायक निवास में।
              पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हो या डकैत
               इतना असर है खादी के उजले लिबास में।
लोकतंत्र में नागरिक अपने प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं। क्या नागरिक राजा का चुनाव करते हैं? यदि नही तो ये प्रतिनिधि सत्ता पर काबिज होकर नौकरशाही के साथ मिलकर उस राजा (जनता) को तार तार क्यों करते हैं। राजनीतिक दलों के चरित्र को देखिए, इस दल ने टिकट न दिया तो उस दल से खरीद लिया। उत्तराखंड में संस्कृत दूसरी राज भाषा है उसको प्रोत्साहित करने की बजाय मुस्लिम विश्वविद्यालय खोलने की राजनीति को बढ़ावा दिया जा रहा है। कोई उत्तराखंड में रोहिंग्या संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। देवभूमि की कौन सोचेगा। पंजाब में भी यही हो रहा है खालिस्तान को बढ़ावा देने के लक्षण वहां की राजनीती में हैं। उत्तर प्रदेश में जातीय विद्वेष की राजनीति हो रही है।
एक तरफ हमारी सीमाओं पर तैनात सैनिक देश की रक्षा करते हुए  बलिदान दे रहे हैं दूसरी ओर देश में विद्वेष की राजनीति के माध्यम से देश को जातियों, धर्मो, पंथों में बांटा जा  रहा है। राष्ट्र की रक्षा में शहीद एक 25-26 साल का देश का लाल जब ताबूत में आता है उसकी सेवा बड़ी है या धंधेबाज जनप्रतिनिधीयों की। एक सरकारी नौकर 30-35 साल नौकरी करता है तब उसे पेंशन मिलती है वहीं, एक राज नेता एक दिन भी जनप्रतिनिधि रह जाए तो पेंशन पक्की। विधायक के बाद सांसद बन जाय तो दो-दो पेंशन।
विचारणीय मुद्दा यह भी है कि बेदाग छवि के कितने लोग हैं जो आगे आ पाते हैं। कृष्णपक्ष वाले, समाज सेवा के नाम पर समाज सौदा करने वालों के लिए, मरहूम शायर राहत इंदौरी का ये शेर सदाबहार है-
बनके इक हादसा बाज़ार में आ जायेगा
जो हुआ नही अखबार में आ जायेगा।
चोर उच्चकों की करो कद्र, कि मालूम नही
कौन, कब, कौन सी सरकार में आ जायेगा।।
इसलिए, धंधेबाजों से लोकतंत्र बचाएं, बेदाग को अपना प्रतिनिधि चुनिए। अभी भी वक्त है….!
Pic Credit :Internet 

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