(लेख) “द कश्मीर फ़ाइल” से टपके प्रश्नों के साये में

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राष्ट्रप्रथम-
“द कश्मीर फ़ाइल” से टपके प्रश्नों के साये में
-पार्थसारथि थपलियाल-

दिल्ली विधानसभा में गुंजित उपहासपूर्ण ठहाकों ने उस हर सुकोमल हृदय को आघात पहुंचाया है जिसने भी उस अट्टहास के मर्म को समझा। उत्तराखंड के देवप्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी के संगम पर दिल्ली के ठहाकों की गर्जना से सुरसरि में भी सेंसेक्स जैसा उछाल आया गया। अतिमृदुभाषी रामबल्लभ भट्ट जी भी कुपित हुए, लेकिन अलग चिंतन के साथ। यह मानवीय गुण है। भट्ट जी बहुत इंसानी सोच के साथ जीते हैं। आदर्श जीवन। उन्हें बुरा लगा कि “द कश्मीर फ़ाइल” पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की हंसी को मैंने अपने लेख का विषय क्यों बनाया? उन्होंने यह भी लिखा कि सोनिया गांधी, राहुल गांधी… पर मेरी टिप्पणी होती है मोदी जी के राज्य गुजरात मे अमुक अग्रवाल ने 28 करोड़ का घोटाला कर दिया उस पर नही लिखा।

यह ग़ज़ब की विवेचना है कि आम के पेड़ पर हम छयूंते (चीड़ का फल) ढूंढने की कोशिश करते हैं। फ़ाइल का विषय और है फ़ाइल में से रिस रिस कर सवाल कुछ और टपक रहे हैं। किसी भी बच्चे की मॉ को पूछिये, हर माँ को अपना बच्चा दुनिया का सबसे प्यारा बच्चा लगता है। यह बच्चा राष्ट्र के सामने आने वाली समस्याओं का निवारण के लिए कितना उपयुक्त है, इसका चिंतन किये बिना वंश की राजगद्दी सौंपने के प्रयास जो 17-18 सालों से चल रहे है, वे कितने उपयुक्त हैं? यह सोचने की बात है। आप पार्टी या कोंग्रेस में कितना लोकतंत्र है किसी से छुपा नही। भारत अगर लोकतांत्रिक देश है तो उस देश मे राजनीति करनेवाले अलोकतांत्रिक क्यों हों?

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मोदी राज में सब कुछ सही हो रहा हो ऐसा कहना भी उपयुक्त नही। इतना जरूर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के “सबका साथ सबका विश्वास, सबका प्रयास” सूत्र पर संदेह नही किया जा सकता। इतने बड़े तंत्र में कहां पर कौन क्या कर ले उसे निरंतर नियंत्रित किया जाना संभव नही। इस दौर में एक घर मे चार लोग हैं तो चारों की अपनी अपनी सोच.. 135 करोड़ की जनसंख्या के लिए संसाधन और प्रशासन स्थापित करना बड़ी बात है। भारत मे मध्यमार्गी कोंग्रेस की आवश्यकता सदैव रहेगी। लेकिन इतनी भी क्या बेबसी कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना कोंग्रेस शून्य है। गत वर्ष भाजपा ने 4 महीनों में दो मुख्यमंत्री बदल दिए लेकिन किसी ओर से विरोध नही सुनाई दिया। हरि हुई कोंग्रे उत्तराखंड विधान सभा मे नेता प्रतिपक्ष नही चुन पाई।

दूसरी बात कोई राष्ट्र अर्थव्यवस्था के लचरपन के कारण महान नही होता। जबतक किसी राष्ट्र की आत्मा उसकी संस्कृति नही होती तब तक कोई राष्ट्र दृढ़ता से अपने पैरों पर खड़ा नही हो सकता। 1998 में वेनेजुएला में कम्युनिस्ट शासन आया। उस शासन ने सब सुविधाएं मुफ्त कर दी। आज वेनेजुएला की हालत बहुत खराब है। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान और श्रीलंका के भी वही हाल हैं। लोकतंत्र हॉकी के खेल जैसा है इसमें किसी को भी रुकना नही अपना गोल बचाना है दूसरे पर चढ़ाना है। जब छद्म तरीके से राष्ट्रीय संस्कृति और सेंध लगाई जा रही हो। और संस्कृति पुत्र सेकुलरी गीत गा रहे हों तब विश्व की प्राचीन सभ्यता को बचाना कठिन होगा। देश की राजनीति में अर्बन नक्सल घुस चुके हैं। इसलिए कश्मीर फ़ाइल से टपकते लहू पर दुर्योधन की तरह अनैतिक अट्टहास बार बार सवाल करेगा कि विश्व को मानवता का पथ पढ़ाने वाले दर्शन इतना कुरूप क्यों दिखाई देता है। यह बंगाल में शक्ति रहित क्यों है? रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिकता और स्वामी विवेकानंद का मानवीय चिंतन कसाईखाना क्यों बन गया? सवाल यह भी है कि शांति प्रिय धर्म तब कौन सी शांति फैला रहा होता है जब मासूमों को बेरहमी से मारा जाता है या किसी नीरजा को बलात्कार के बाद आरे से चीरा जाता है। यह व्यथा उस देश की है जिसके संविधान में जनवरी 1976 में संशोधन कर धर्मनिरपेक्ष बनाया गया था।

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नोट-ये लेखक के निजी विचार हैं 

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