ऋषिकेश में मेयर चुनाव…दलों की विचारधारा के इतर चारों प्रत्याशी कांग्रेसी निकले !

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  • लोकतंत्र का पर्व होता है चुनाव, जनप्रतिनिधि लोगों के सामने हैं अब लोग किसी एक को चुनेंगे चारों में से  
  • लेकिन इस चुनाव में कहीं न कहीं चारों प्रत्याशी अपनी पार्टी की विचारधारा से डगमगाए जरुर हैं,  या उनका इतिहास रहा है

ऋषिकेश : (मनोज रौतेला) नगर निगम  चुनाव के कुछ दिन ही बचे हैं…..लेकिन इस चुनाव में अहम बात जो देखने को मिली वह है राजनीतिक विचारधारा का अभाव प्रत्याशियों में. हालाँकि स्थानीय गली मोहल्ले का चुनाव है यह. लेकिन राष्ट्रीय दलों की बात करें तो प्रत्याशी अपने आकाओं के,  पार्टी की नीति, रीति, निर्देश, आदेश का पालन करने के लिए अटेंशन मोड पर रहते हैं. उसी अनुसार चलते हैं चुनाव में. लेकिन फिर वही ….राजनीती विचारधारा कहाँ गयी ? यहाँ पर गौर करें,  बात ऋषिकेश के संदर्भ में हो रही है.

बाकि निर्दलीय कुछ हद तक निर्दलीय पैदा होता है…बाकि वह भी किसी न किसी विचारधारा या दल से जुड़ा हुआ ही … होता है. कहीं विचार नहीं मिलते, तो कहीं मौका नहीं मिला तो कहीं अति महत्वकांशी होना इत्यादि कारण होते हैं या हो सकते हैं. ऋषिकेश मेयर चुनाव में चार प्रत्याशी इस बार अपने हाथ आजमा रहे हैं. चारों इधर से उधर वाले हैं….इसमें कोई दो राय नहीं है. तारीफ किसकी करें ? सवाल पर किस पर उठायें…..खैर यह जनता पर छोड़ देते हैं.  जहाँ तक प्रत्याशियों की बात करें तो चारों में एक चीज जो देखने को मिली वह है चारों कांग्रेसी हैं….यानी चारों कांग्रेस की विचाधारा से प्रेरित थे. अब चारों की चार दिशाएं हो रखी हैं. विश्व के सबसे बड़े दल का दम भरने वाली भारतीय जनता पार्टी ने इस बार शम्भू पासवान को टिकट दिया हुआ है. जो पूर्व में बगल से लगता हुआ टिहरी जिले के अंतर्गत ढालवाला/मुनि की रेती नगर पालिका परिषद् में चेयरमैन की भूमिका अदा कर चुके हैं. उस समय वे कांग्रेस  में थे. फिर बाद में वे भाजपा में शामिल हुए और ऋषिकेश की राजनीती करने लग गए. फुल टाइम….पार्ट टाइम जाते थे शीशम झाडी, मुनि की रेती, ढालवाला (यानी टिहरी जिले के अन्दर)…हालंकि इलाका ऋषिकेश से लगा हुआ है. अब पासवान मेयर पद के लिए ऋषिकेश में भिड़े हुए हैं तीनों प्रत्याशियों से. इन पर,  सवाल कई उठे हैं तारीफ कई हैं लेकिन उसमें हम नहीं जा रहे हैं. लेकिन एक बात है राजनीतिक चन्दन घिस कर आये हैं इसमें दो राय नहीं है.इनका जीवन संघर्ष का रहा है. नाम चल पडा है अब  शिव नगरी में शम्भू-शम्भू का.

अब प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की बात करें तो, दीपक प्रताप जाटव यहाँ से चुनाव लड़ रहे हैं. मेयर पद के लिए. दीपक प्रताप जाटव देखने में डैशिंग हैं. पर्सनालिटी है. मेयर एक शहर का होना चाहिए वैसा लगते हैं.  कांगेस के सिपाही  हैं पुराने. उनके पिता की अपनी इमेज है. बेटे में भी वही गुण हैं. जो लोगों के बीच काम कर रही है. विचारधारा की बात करें तो, बीच में ये भी आरएसएस  के पथ संचलन में हाथ में  डंडा सर पर टोपी आरएसएस की वेश भूषा  पेंट पहने  दिखाई दिए. नगर में पथ संचलन करते  कदमताल करते हुए दिखे. तो विचारधारा कहाँ गयी ? लेकिन  दीपक का सफल ब्य्वासाई भी हैं. उनका बिजनेस ऐसे जगह पर स्थापित हुआ जहाँ पर 90% लोग विरोध में थे. वहां उन्हूने रिस्क लिया और स्थापित किया बिजनेस भी और अपने आपको भी. वो भी एक नंबर में. सबसे ज्यादा  टैक्स देने वाले भी सरकार को वहीँ हैं. अच्छे शिक्षित,   सफल बिजनेसमैन,  लोगों ने सवाल भी उठाये लेकिन उन सवालों में उतना दम नहीं था जो मुद्दे में कन्वर्ट नहीं हो सके. दीपक ऋषिकेश में पैदा हुए, शिक्षा, छात्र राजनीती सब यहीं की फिर ब्यापार में आये. पिता कांग्रेस के कार्यकर्त्ता थे तो राजनीती खून में थी. उनकी स्पीच नपी तुली रहती है. उन्हें पता है उनको क्या कहना है…यह एक जनप्रतिनिधि की बड़ी बात  है.  गैर राजनीतिक,  इन्त्लेक्चुवल क्लास ने इस बात की   उनकी तारीफ की है. ब्यापारियों ने भी शनिवार को  उनकी बातों को सुना  जिस अंदाज में,  वह भी उनकी अपनी ब्यक्ति छवि के कारण था. पार्टी विचारधारा बाद में.

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अब आ जाओ दिनेश चन्द्र मास्टर जी की. जो निर्दलीय प्रत्याशी हैं और कुल्हाड़ी उनको मिली है. पहाड़ (देवप्रयाग क्षेत्र से)  मूल के होने के कारण काफी हद तक इसमें कोई शक नहीं उनके कारण यह चुनाव में मिश्री का घोल बन कर सामने आया है. अब यह देखना होगा यह घोल किसको भाता है किसको कड़वा लगता है. मास्टर जी भी  शिक्षित हैं संघर्ष की कहानी उनके चाल और ढाल में साफ़ झलकती है. उन्हूने भी ऑटो /विक्रम चलाया, दुकानों पर काम किया, अखबार हाकिंग का काम किया, टेलरिंग की,  यात्री  ढोए ऋषिकेश से  देवप्रयाग/श्रीनगर तक.   खास बात है मास्टर जी का परिवार ओझी/ढोली (पारंपरिक  ढोल बजाने  का) का काम करता था. जिन्हें पहाड़ में बहुत आदर से देखा जाता है. हर ख़ुशी में उनको आमंत्रित किया जाता है और लेकिन मास्टर जी पहले खाने कमाने के लिए बाहर निकल गए.  वे भी काग्रेस के पुराने कार्यकर्त्ता रहे हैं. अब वे निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं. जिन्हूने ऋषिकेश की राजनीतिक  समीकरण काफी हद तक ध्वस्त कर दिए है अभी तक. कांग्रेस और भाजपा दोनों ही डिस्प्रिन की गोली जेब में रख कर चल रहे हैं. करें तो क्या करें वाली स्थित…मास्टर जी  की सादगी और उनका जीवन संघर्ष भरा कुछ ज्यादा ही है. वह लोगों को भा गया है. पहाड़ी हो देशी या फिर बाजार या मैदान का…उन पर नजर है इन वोटर्स की….ऐसे में  मास्टर जी भी कांगेस  विचारधारा को गंगा में प्रवाहित कर आ गए. अभी वे भी नयी विचारधारा के साथ राफ्टिंग कर रहे हैं.

अब अंत में बात करते हैं इकलौते सबसे पुराने दल उत्तराखंड के उक्रांद यानी [UKD]  जिसका नाम जिसका जन्म   25 July 1979 को हुआ था. लेकिन अभी तक मुख्यमंत्री के खवाब देखते देखते अपना चुनावी सिम्बल कुर्सी चुनाव चिन्ह  को खो चुकी है. इस बार कप प्लेट के साथ लोगों के बीच है. इसमें सेनापति यहाँ पर महेंद्र सिंह हैं. जो पढ़े लिखे हैं और पेशे से इंजिनियर हैं. पूर्व अधिशाषी अभियंता (बिजली विभाग) रहे हैं. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के समय यहाँ पर बहुत काम किया है.  उनका अपना नाम है इस क्षेत्र में. वे भी कांग्रेसी हैं. उन्हूने भी दावेदारी की थी कांग्रेस से मेयर टिकट की इस बार. उन्हें जब नहीं मिला तो UKD ने उनको लपक लिया और टिकट दे दिया. किसी भी पार्टी से चुनाव लड़ना बड़ी है. लोकतंत्र की बात करें तो.   लेकिन विचारधारा महत्त्व रखती है. कांग्रेस  विचारधारा से सीधे UKD की विचारधारा में कूद गए. अब उनकी शिक्षित छवि और उद्देश्य को लेकर वे भी गली मोहल्ले में लोकतंत्र की कसौटी में जनप्रतिनिधि के तौर पर अपने आप को साबित करने में लगे हुए हैं.  तीर्थनगरी ऋषिकेश और गढ़वाल का गेट कहे जाने वाले ऋषिकेश में,  लोकतंत्र के इस पवित्र पर्व (चुनाव) में अब  ये चारों कांग्रेसी निकले, जिससे यह चुनाव एक अलग ही दास्तान लिखेगा. इसमें कोई शक नहीं. जीते हारे कोई भी….बात उसकी नहीं है. लेकिन  चारों ने विचारधारा को इधर और धर  सूंग-सूंग कर अलग अलग  राजनीतिक प्रसाद  चख कर अपने आपको सादा है. अब देखना होगा इनमें से किसी एक को जनता चुनती है -वहीँ 26 जनवरी (क्यूंकि, एक स्वतन्त्र गणराज्य बनने और देश में कानून का राज स्थापित करने के लिए 26 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा इसे अपनाया गया और 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया था) का झंडा फहराएगा ऋषिकेश मे

दल बदल/विचारधारा -एक नजर –
दल बदल/विचारधारा बदलने  की इस भयंकर समस्या पर विचार करने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि इस समस्या पर नियंत्रण कानून बनाने से नहीं होगा. वरना सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक दल सर्व सहमती  से राजनीतिक नैतिकता से कुछ मूल्यों को निर्धारित करें तथा उन मूल्यों के प्रति ईमानदार रहें.  तभी इस समस्या का समाधान संभव है. अंत में यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि किसी भी कारण से दल विरोधी कानून पास किया गया है. लेकिन इस दिशा में हमें अनेक प्रयास कर रहने  होंगे. ताकि आने वाले समय में दल बदल/विधारधारा जैसी समस्या का समाधान किया जा सके।
जहां तक दल बदल या राजनीतिक विचारधारा का सवाल है भारतीय राजनीति में एक दल के सदस्यों को दूसरे दल में शामिल होने के लिए आमंत्रित करने की अवधारणा है. यह अक्सर विधानसभा चुनाव/लोकसभा चुनाव  के समय उठाया जाता है. लोकसभा चुनाव के समय उठाया जाता है स्थानीय चुनाव तो फिर स्थानीय  ही है….जब एक दल अन्य दलों से समर्थन की तलाश में होता है या फिर बहुमत नहीं होता है. इसके तहत दल के सदस्यों को अन्य दल में शामिल होने का आमंत्रण किया/दिया  जाता है. ताकि उनके समर्थन से दूसरे दल को सरकार बनाने में मदद मिल सके. यह प्रथा  भारतीय राजनीति में काफी आम हो गई है और इसे कुछ लोग राजनीतिक दलों के तख्ता पलट या आत्मसमर्पण के रूप में भी देखते हैं. इसके साथ ही इस प्रथा के खिलाफ भी कुछ लोग आवाज  उठाते हैं और उन्हें इसका देश की लोकतंत्र में एक असंवैधानिक  अभ्यास मानते हैं. दल बदल भारतीय राजनीति में एक विवादास्पद विषय  भी  है. इस पर अलग-अलग राजनीतिक दलों की अलग-अलग राय रहती है.

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