काशीपुर : बेटी को पहला पीरियड्स हुए तो परिवार ने मनाया जश्न, काटा केक
रागिनी लोगों को जागरूक करेंगी अब मासिक धर्म पर

काशीपुर : इंसान की सोच बदल जाए कहा नहीं जा सकता. कोई अच्छी सोच में तब्दील हो जाता है तो कोई बुरी. ऐसे में काशीपुर में एक सोच बदली और वह एक तरह से नजरीर बन गयी. ऐसे में आप कह सकते हैं रूढ़िवादियों को आइना दिखाया. उत्तराखंड से एक और सन्देश विश्व के लिए गया है. खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्र में रह रहे लोगों के लिए.
मासिक धर्म की बात करते ही अक्सर लोग चुप हो जाते हैं या फिर बात खुले में नहीं करते हैं. अब ऐसा नहीं है समाज बदल रहा है. लोग सामने आ रहे हैं. काशीपुर में ऐसा ही हुआ. अपनी बेटी का पहला मासिक धर्म शुरू होने पर जश्न मनाया गया परिवार के द्वारा. बाकायदा केक काटा गया. पिता की इस सोच को सोशल मीडिया से लेकर आम लोगों तक की सराहना मिल रही है. पीरियड का दर्द झेलने वाली अन्य बेटियां भी एक पिता की इस सोच पर गौरवान्वित हैं.
आपको बता दें, काशीपुर निवासी जितेंद्र ने बताया कि वह मूलरूप से ग्राम चांदनी बनबसा के रहने वाले हैं. जो चम्पावत जिले में पड़ता है. उनके परिवार की भी पहले रूढ़िवादी सोच थी. विवाह के बाद पत्नी के जरिये उन्हें जब इसका पता चला तो उन्होंने पूरे परिवार और समाज की सोच बदलने की कोशिश की. मासिक धर्म कोई अपवित्रता नहीं है, ये एक प्राकृतिक प्रक्रिया है और जीवन का आधार है. उन्होंने सोचा था कि जब उनकी बेटी को पहले पीरियड्स आएंगे तो इसे वह उत्सव की तरह मनाएंगे. इसके तहत 17 जुलाई को उन्होंने बेटी के पहले मासिक धर्म पर समारोह आयोजित किया और केक काटकर जश्न मनाया. इस दौरान लोगों ने रागिनी को कई उपहार दिए. कुछ लोगों ने उसे उपहारस्वरूप सेनेटरी पैड भी भेंट किए. अब पैड पर अक्षय कुमार की फिल्म भी बन चुकी है. ऐसे में यह फैसला कहीं न कहीं समाज के लिए नजीर साबित हो सकता है.
जीतेन्द्र और भावना की बेटी रागिनी ने कहा कि पीरियड्स होना आम बात है. जैसा मेरे माता-पिता ने मेरे प्रथम मासिक धर्म पर केक काटकर उत्सव मनाया है, यह हर माता-पिता को सोचना चाहिए. मैं स्कूल में और सहेलियों के माता-पिता को भी इसे लेकर जागरूक करूंगी. जितेंद्र ने सोशल मीडिया पर आयोजन से संबंधित कुछ तस्वीरें साझा की थीं. इसे अब तक 10 हजार से अधिक लोग शेयर कर चुके हैं. अधिकतर लोगों ने उनकी पहल की सराहना की है.
रागिनी की मां भावना और चाची अनीता कहती हैं कि बुजुर्गों में मासिक धर्म के प्रति गलत धारणा है. हमने तो अपनी मां को पीरियड्स के दौरान परिवार से अलग बैठे देखा है. उस समय अच्छा नहीं लगता था. महिलाओं के साथ ही पुरुषों को भी मासिक धर्म के प्रति सोच बदलने की जरूरत है. दादा हंसा दत्त भट्ट का कहना है कि पुराने समय में सेनेटरी पैड नहीं होते थे. महिलाएं कपड़े का प्रयोग करती थीं. इसके चलते मंदिरों और रसोई में प्रवेश नहीं करने देते थे. यह भेदभाव अब कम हो गया है. अब सुविधाएँ हो गयी हैं. क्योँ न रूढ़िवादी सोच को तोड़ें ? बच्चे हैं उनको हर दुःख सुख में परिवार का साथ होना चाहिए फिर इसको छुपा कर क्योँ रखें ?