देवबंद : ईद-उल-जुहा पर बिशेष-दस जिलहिज्जा को तमाम मुसलमान अल्लाह की राह में कुर्बानी कर मनाते हैं ईदुजजुहा का पर्व

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सूफ़ियाल अल्वी की रिपोर्ट :

देवबंद। उर्दू कलेंडर का आखिरी महीना जिलहज यह महीना हज का महीना कहलाता है इस माह में हजरत इब्राहीम और उनके पुत्र हजरत इस्माईल ने खुदा के आदेश पर बेतुल्लाह शरीफ (खाना-ए-काबा सऊदी अरब) का निर्माण किया था। नौ जिल हिज्जा को उस स्थान का हाजी तवाफ (सात चक्कर) करते है जो हज का बड़ा रुक्न (भाग) है। दस जिलहिज्जा को तमाम मुसलमान अल्लाह की राह में कुर्बानी कर ईदुजजुहा का पर्व मनाते हैं और इसी कुर्बानी के साथ ही हज मुकम्मल होता है।

मक्का में जिस स्थान पर हज के लिए हाजी जमा होते हैं वह अरफात का मैदान कहलाता है। बताया जाता है कि जब खुदा ने हजरत आदम अले. (संसार के प्रथम पुरुष) को दुनिया में उतारा तो वह हिंदुस्तान (वर्तमान में श्रीलंका) में उतरे थे और हजरत हव्वा (संसार की प्रथम महिला) को जद्दा सऊदी अरब में उतारा गया था। हजरत आदम व हजरत हव्वा एक-दूसरे को तलाश करते हुए अरफात के मैदान में मिले थे इसलिए इसको अरफात (पहचान) का मैदान भी कहते है। आज तक दुनिया के मुसलमान इस धार्मिक परंपरा को अरफात के मैदान में जमा होकर निभाते चले आ रहे हैं।

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कहा जाता है कि संसार के समाप्त होने पर दोबारा जब मनुष्यों को जीवित किया जाएगा तो सब इसी मैदान में इक_ïा होंगे तथा उन सब के पाप-पुण्यों का हिसाब-किताब इसी मैदान में होगा। इस माह के पहले दस दिन खुदा की इबादत के दिन कहलाते है, दसवे दिन ईदुलजुहा की नमाज के बाद कुर्बानी की जाती है जो तीन दिन तक चलती है। कुर्बानी भी इबादत का एक महत्वपूर्ण भाग है। कहते हैं कि हजरत इब्राहीम अपने एक सपने का जिक्र अपने पुत्र से करते है और उनसे राय मांगते है, इस पर हजरत इस्माईल कहते हैं कि अगर खुदा का आदेश है तो आप वह काम करें जिसका आपको खुदा ने हुक्म दिया है, मुझे आप खुदा के नाम पर कुर्बान कर दें। इस तरह दोनों बाप-बेटे उस स्थान पर पहुंच जाते है जहां हजरत इस्माईल को कुर्बान किया जाना है। हजरत इब्राहीम हजरत इस्माईल को जमीन पर लिटाकर खुदा के नाम पर अपने प्यारे बेटे की गर्दन पर छुरी चला देते है लेकिन हजरत इस्माईल की गर्दन नहीं कट पाती।

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इस पर पुत्र अपने पिता को कहते है कि आप अपनी आंखें बंद करके तेजी से छुरी चलाएं लेकिन दूसरी बार भी छुरी काम नहीं करती, ऐसा कई बार किया जाता है लेकिन पिता पुत्र का गला नहीं काट पाता। इसके बाद खुदा की आवाज आती है कि इस नेक कोशिश के बाद बेटे की कुर्बानी के स्थान पर अन्य जानवर की कुर्बानी कबूल करते हैं तथा मुसलमान आज तक उसी परंपरा का निर्वाह करते हुए भेड़, बकरा, ऊंट तथा अन्य जानवरों की कुर्बानी करते चलते आ रहे है।

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