(लेख) संस्कृति-जीवन का सुख…

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संस्कृति-जीवन का सुख
 ~पार्थसारथि थपलियाल~
ईश्वर ने जब सृष्टि की रचना की तो प्रत्येक वस्तु, जीव, जंतु, मानव, वनस्पति आदि का जीवन भी तय कर दिया। प्रत्येक में जीने और मरने के उपकरण भी फिट कर दिए। कारण यह है कि इसका निर्माता प्रकृति स्वयं है दूसरा कोई बना नही सकता। उस परमेश्वर ने मनुष्यों में दया, करुणा, ममता और जिज्ञासा जैसे गुण दिए तो लोभ, मोह, माया, ईर्ष्या-द्वेष, अहंकार और अज्ञानता भी दी है।
  • कुछ समाचार जो आपको भी पता हैं उनके नमूने जानिए-
  • एक पुरुष ने अपनी पत्नी की हत्या कर नहर में फेंक दिया।
  • एक महिला ने अपने तीन बच्चों के साथ कुएं में छलांग मार दी।
  • सास बहू के झगड़े ने वृद्धा को वृद्ध आश्रम जाने को किया मजबूर। 
  • संभ्रात घर की महिला अपने दुधमुंहे बच्चे को छोड़कर ड्राइवर के साथ भागी।
  • एक शराबी बाप ने अपनी नाबालिग बेटी को हवस का शिकार बनाया।
  • खेत के बंटवारे से असंतुष्ट छोटे भाई ने बड़े भाई की जान ली। आदि आदि।
स्थितियां अलग अलग हैं। मानवीय पीड़ाएँ हैं। कारण लोभ, मोह, माया, ईर्ष्या-द्वेष, अहंकार और अज्ञानता में से कोई एक है। मानव की प्रवृति में संचय भी एक गुण है जो लोभ श्रेणी में आता है। वृतियाँ तो सदैव ही रही हैं लेकिन अधिसंख्य मानव क्रूर नही रहा। क्रूर लोगों को भारतीय संस्कृति में राक्षस कहा गया है।कब किस आदमी की राक्षसी वृतियाँ जागृत हो जाएं, यह अज्ञात है। एक वीडियो देखने को मिला कि कुछ लोग एक युवक को बेरहमी से लाठियों से मार रहे हैं। एक वीडियो आई एस आई एस द्वारा सैकड़ों की संख्या में कुछ लोगों को आंखों में पट्टी बांधकर ऊंची जगह से धक्का मार कर गड्ढे में एक के ऊपर एक गिराया जा रहा है।हमारे समाज मे दया और करुणा नामक दो तत्वों ने मानवता बिना युद्ध के जीती है। राजा हो या आम जनता प्रत्येक में मानवीय गुणों का होना आवश्यक है। इसीलिए कहा गया है- आत्मन प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत।हम इस व्यवहार किसी के साथ न करें जो आपको अपने साथ किया जाना पसंद नही है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में तो राजा के लिए भी लिखा है कि राजा को  हितकारी होना चाहिए-
प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रियं प्रियं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं प्रियम्॥ 
अर्थात्-प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में राजाका हित है। राजा का अपना प्रिय  कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है।
कबीर के एक भजन की ये पंक्तियां समझने योग्य हैं।
मत कर माया को अहंकार 
मतकर काया को घमंड
काया गार से काची।
काया गार से काची रे जैसे ओंस रा मोती….
दर असल न समाज में मानवीय मूल्य रहे, न शिक्षा में ही ऐसा पढ़ाया जाता है। समाज मे भी अनुकरणीय जीवंत गाथाएं नही रही। केवल होड़ है ज्यादा पाने की कमाने की। उज़के लिए आदमी छलबल कपट सब कर रहा है।लुई टॉलस्टॉय की एक कहानी बचपन मे पढ़ी थी। एक राजा ने घोषणा की कि कल सुबह सूर्योदय से अस्त तक जो जितना चाहे ले ले। “एक आदमी ने सोचा कि मैं जमीन लूंगा। वह दौड़ा बहुत दौड़ा सूर्यास्त के समय उसका राउंड पूरा होता उसने दम तोड़ दिया।” सुखी जीवन और ऐश्वर्यमय जीवन जीने के दो समृद्ध रूप हैं। एक अपने पुरुषार्थ से कमाकर परिवार के साथ सुखी है, दूसरा ऐश्वर्य को दिखाने के लिए अपनों को कोर्ट कचहरी में घसीट रहा है। भारत के पुराने घरों में साधु सन्यासियों, पशु पक्षियों, अतिथियों और जरूरत मंदों को भोजन दान देने की परंपरा थी। इस लोक को विनम्रता से और परलोक को पुण्य से सुधारने की सतत क्रिया थी वह गायब हो गई। आज मानव मशीनीकृत हो गया। ऐसे में दोष भी दें तो किसे?Pic Credit: Internet 
(लेखक के उपरोक्त निजी विचार हैं)

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