(आलेख) “बोली” के अस्तित्व को बचाने का उम्दा प्रयास है – ’म्योर पहाड़ मेरि पच्छयांण
बोली के अस्तित्व को बचाने का उम्दा प्रयास है – ’म्योर पहाड़ मेरि पच्छयांण
~भुवन चन्द्र पन्त~
लोकभाषाओं के निरन्तर विलुप्त होने की प्रवृत्ति निश्चय ही चिन्ताजनक है । भारत के सन्दर्भ में देखें तो अंग्रेजी, हिन्दी निवाला बना रही है तो हिन्दी दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं पर हावी है । यानि बड़ी मछली छोटी को निगलती नजर आती है । भारत की 81 ऐसी भाषाएँ हैं, जो संवेदनशील श्रेणी में रखी गयी हैं, जिन पर विलुप्ति के बादल मंडरा रहे हैं और दुर्भाग्य से इसी श्रेणी में उत्तराखण्ड की कुमाउनी, गढ़वाली और जौनसारी भाषाएंे भी आती हैं ।
भाषायी गणना के अनुसार 10 हजार से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली बोली को भाषा की श्रेणी में ही नहीं रखा जाता। 2011 की जनगणना के अनुसार गढ़वाल व कुमाऊॅ की जनसंख्या क्रमशः 58,57,294 और 42,28,998 थी , लेकिन गढवाली व कुमाउनी बोलने वालांे की संख्या क्रमशः 24,82,098 तथा 20,81,057 बतायी गयी है । इसका मतलब हुआ कि गढ़वाल में लगभग 43 प्रतिशत तथा कुमाऊॅ में 49 प्रतिशत लोग ही अपनी भाषा बोलते हैं । बहुत संभव है कि उत्तराखण्ड से पिछले दशकों में पलायन जिस दर से हुआ है और जनमानस में शहरी व कान्वेन्ट संस्कृति के प्रति रूझान बढ़ा है , तो 2021 की जनगणना में यह ग्राफ और भी नीचे आ सकता है । उत्तराखण्ड की लोकभाषाओं के संरक्षण के लिए बड़ी बड़ी बातें हो रही हैं । इन्हें आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग उठ रही है , प्रारम्भिक कक्षाओं में उत्तराखण्ड सरकार द्वारा कुमाउनी व गढ़वाली में पाठ्यक्रम तैयार किया जा रहा है, लोकसाहित्य पर नियमित पत्र/पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है, लोकगीतों के माध्यम से लोकभाषा का प्रचार-प्रसार हो रहा है और सोशल मीडिया के आने के बाद विभिन्न प्लेटफार्मों पर लोकभाषा पर खूब लिखा भी जा रहा है । एक मांग यह भी उठ रही है कि इन लोकभाषाओं का मानकीकरण किया जाय और लोकभाषा के लिए अलग से लिपि हो। ये मांगे और ये प्रयास मन को समझाने के लिए अच्छे लगते हैं, लेकिन क्या इससे हम लोकभाषा के अस्तित्व को बचा पायेंगे ? मेरा स्पष्ट मत है, कदापि नहीं। भाषा का विकास बोली के रास्ते होता है और बोली इसे बोलने वालों से विकसित होती है। क्या करियेगा उस मानकीकरण का जब बोली बोलने वालों का ग्राफ निरन्तर नीचे गिर रहा है, कुमाउनी लोकभाषा में पत्र-प़ित्रकाऐं निकल रही हैं, लेकिन उसे समझने और पढ़ने वाले तभी होंगे जब वे उसे बोल सकें । स्कूली पाठ्यक्रम में कुमाउनी अथवा गढ़वाली शामिल करने पर भी यदि घर जाकर उसके मॉ-बाप उससे अपनी बोली में बात न करें तो यह महज स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा ीार रह जायेगा। मानकीकरण , लिपि व आठवीं अनुसूची पर तो तभी सोचा जाना चाहिय,े जब बोली बोलने वालों का प्रतिशत बढ़े ।
हकीकत तो ये है कि बोली तभी जीवित रह पायेगी जब लोग आम बोलचाल में उसको प्रयोग में लायें । शिक्षित नवयुवक-युवतियां यदि यह कहने में गर्व करें कि ’’ हम समझ तो जाते हैं, लेकिन बोल नहीं पाते ’’, तो उनकी भावी पीढ़ी से अपनी बोली में बोलने की भला उम्मीद ही क्या की सकती है ? आज के मॉ बाप जब पानी को अपनी बोली में ’पाणि’ तो छोड़िये, हिन्दी में पानी के बजाय उनके मुंह से ’वाटर’ सुनकर गर्व अनुभव करते हांे, तब लोक की बोली बोलने की उम्मीद करना तो दूर की कौड़ी है। दूसरी ओर यदि लोकभाषा उस लोक की जन-जन की भाषा के रूप में होंठों पर होगी तो और प्रयासों के लिए संधर्ष करने की जरूरत ही क्यों पड़ेगी, वह खुद-ब-खुद हमारे करीब आयेंगी ।
बेशक आज कुमाउँनी बोली पर ’पहरू’ ’कुमगढ़ ’ आदिल कुशल’ और ’दुदबोली’ जैसी पत्रिकाऐं बहुत अच्छा काम कर रही हैं । लेकिन ये पत्रिकाऐं कुमाउनी बोली के पाठकों को बटोर तो सकती हैं, लेकिन कुमाउँनी बोलने वालों का कुनबा कितना बढ़ा सकती हैं ? कहना मुश्किल है । क्योंकि पत्रिका के पाठक अधिकांश वही लोग हुआ करते हैं, जो कुमाउँनी जानते और समझते हैं । जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हॅू , कि बोली बोलने से ही जीवित रह सकती है । छोड़ दीजिए आप मानक कुमाउँनी की बात । जो अपनी बात जिस उपबोली में रखता है, उसे बोलने दीजिए? इसमें कोई हर्ज नहीं। सब एक दूसरे की उपबोली को अच्छी तरह समझने की सामर्थ्य रखते हैं और यह भी कि प्रत्येक उप बोली की अपनी अपनी समृद्ध शब्द संपदा है। अलग अलग उपबोलियों को सुनने से हमारा शब्द भण्डार बढ़ेगा ही।
यहॉ पर जिक्र करना समीचीन है कि पिछले दो वर्षों से कुमाउँनी शब्द सम्पदा के पेज पर ’ म्योर पहाड़ मेर पच्छयांण ’ कार्यक्रम के तहत् कुमाउँनी संवाद की जो परम्परा शुरू हुई है, कुमाउनी बोली के विकास में यह मील का पत्थर साबित हो सकती है। यों भी सोशल मीडिया आज जितना सक्रिय हुआ है , हरेक की पहुंच उस तक है। कुमाउँनी तो छोड़िये, गैरकुमाउँनी भी इस तक पहुंच रहा है । कोरोना काल में जब पूरी दुनियां अपने घरों में दुबक गयी थी, तब कुमाउँनी बोली से लगाव रखने वाले दो युवकों हेम पन्त व हिमांशु पाठक (रिस्की पाठक) ने जिस जुनून के साथ इस संवाद की शुरूआत् की और कुछ ही श्रृंखलाओं के बाद श्रोताओं का इसे जो प्यार मिला ,उसी प्रोत्साहन का परिणाम है कि आज इसी कुमाउनी संवाद श्रृंखला की 184 कड़िया प्रसारित हो चुकी हैं। जिसमें देश व विदेश में कुमाउनी भाषी व्यक्तित्वों को संवाद के लिए आमंत्रित किया गया , जो अपने-अपने क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं ।
संवाद श्रृंखला के अन्तर्गत चयनित व्यक्तित्वों को साक्षात्कार एक निश्चित फार्मेट के अन्तर्गत लिया जाता है और साक्षात्कार कर्त्ता का चयन भी इस तरह से किया जाता है जिससे आमंत्रित अतिथि सहजता से संवाद स्थापित कर सके । आवश्यकता इस बात की है कि जिन प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों को इस कार्यक्रम के माध्यम से हम एक लड़ी में पिरो पाये , उन्हें जोड़े रखें , लड़ी को बिखरने न दें । ये हमारे लोक की अमूल्य थाती हैं । ऐसे व्यक्तित्वों से एक ओर जहॉ अपने बीच के लोगों के उस मुकाम तक पहुंचने और अपनी बोली के प्रति लगाव से नवयुवकों को पंख लगाने को प्रेरित करती है , वहीं दूसरी ओर यह भी सीख देती है कि यदि इस मुकाम तक पहुंचे व्यक्तित्व अपनी बोली बोलने में गौरव अनुभव कर रहे हैं , तो हम क्यों नहीं बोलें? विभिन्न उप बोलियों के परिचय के साथ उन लोगों को भी एक सबक सीखने को मिलता है, जो कहते नहीं थकते कि – ’’ हम समझ तो लेते हैं, लेकिन बोल नहीं पाते । ’’एक तरह से कुमाउनी भाषा सीखने की यह एक पाठशाला साबित हो रही है । कुमाऊॅ की बोलियों की भी कई उप-बोलियां हैं, आमंत्रित अतिथि कोई सोर्याली में अपनी रखता तो कोई खसपर्जिया में , कोई पाली पंछाऊ का अतिथि होता तो कोई जोहारी । कहने का आशय यह है कि एक ही मंच पर कुमाऊ की विभिन्न उप बोलियों को सुनने व समझने का अवसर ।
कार्यक्रम की अपार सफलता से प्रेरित होकर बाद में इसी को आगे बढ़ाते हुए – ’हमार पुरूख ’ और ’जोल्यां मुरूलि’ की शुरूआत की गयी । ’हमार पुरूख’ में जहॉ कुमाऊॅ के लब्धप्रतिष्ठित पुरखों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आमंत्रित पैनल द्वारा कुमाउनी में चर्चा की जाती है , वहीं ’जोल्यां मुरूलि’ कुमाउनी व गढ़वाली बोली व संस्कृति को जोड़ने में एक सेतु का काम कर रहा है । जहॉ आमंत्रित अतिथि गढ़वाल का और साक्षात्कार कर्त्ता कुमाउनी बोली का होता है । जिस तरह दोनों बोलियों के बीच बड़ी सहजता से संवाद स्थापित होते हैं , तो एक विचार सहज ही मन में उभरता है कि क्या हम इन दोनों बोलियों को एक नाम उत्तराखण्डी बोली नहीं दे सकते ? अगर हमारी संस्कृति कमोवेश एक है और बोली एक दूसरे के समझ में आती है, तो उत्तराखण्डी समाज को एक सूत्र में पिरोकर हमारी बोली और अधिक समृद्ध ही होगी ।
कुमाउँनी शब्द सम्पदा की इसी अभूतपूर्व पहल की सफलता के दो वर्ष पूर्ण होने पर गत् माह हल्द्वानी में ’वर्चुअल से रियल’ के नाम पर ’ भेेट-घाट’ कार्यक्रम के अन्तर्गत एक दिवसीय मिलन समारोह का आयोजन किया गया । इसमें ’म्योर पहाड़ मेरि पच्छयांण’ कार्यक्रम में सिरकत कर चुके अतिथि तो थे ही , साथ ही कुमाऊॅ से ताल्लुक रखने वाले साहित्यकारों, पत्रकारों , हास्य कलाकारों , गायक-गायिकाओं, व्लागर, चित्रकार, छायाकार तथा चिकित्सा, स्वास्थ्य, शिक्षा एवं प्रशासन के लोगों का अदभुत जमावड़ा देखने को मिला । दो सत्रों में चले इस कार्यक्रम में सभी वक्ताओं ने अपनी बात कुमाउनी बोली में रखी । जो लोग विदेश में थे अथवा महानगरों से किसी कारणवश शिरकत नहीं कर पाये , उन्होंने वीडियो संदेश से अपनी उपस्थिति दर्ज की ।
दिल्ली से विज्ञान कथाकार देवेन्द्र मेवाड़ी (नई दिल्ली), भूपेश जोशी अभिनेता (नईदिल्ली), डॉ0 ललित मोहन उप्रेती (आस्ट्रेलिया), डॉ0 निर्मल चन्द्र गुरूरानी, (कनाडा),ले0 जनरल(रि0) (रानीखेत), वन्या जोशी फिल्म अभिनेत्री (मुंबई),ललित मोहन पोखरिया, वरिष्ठ रंगकर्मी (लखनऊ), पद्मश्री इतिहासकार शेखर पाठक, नवीन जोशी, वरिष्ठ पत्रकार (लखनऊ) तथा कुमाऊॅ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो0 होशियार सिंह धामी उन लोगों में थे, जिन्होंने वीडियो संदेश के माध्यम से कुमाउनी बोली में शुभकामना भेजकर अपनी बात रखी। ’भेट-घाट’ कार्यक्रम में पुरातत्व वेत्ता पद्मश्री डॉ0 यशोधर मठपाल, डॉ0 ललित मोहन उप्रेती , वरिष्ठ पत्रकार राजीव लोचन साह एवं गोबिन्द पन्त ’राजू’, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ0 लक्ष्मण सिंह बिट बटरोही, पहरू के संपादक डॉ0 हयाल सिंह रावत, कुमगढ़ के संपादक दामोदर जोशी ’देवांशु’, वरिष्ठ पत्रकार चारू तिवारी, प्रो0 उमा पाठक, ज्ञान पन्त , कामेडियन पवन पहाड़ी , उभरते युवा कलाकार भाष्कर भौर्याल, अपने समय की चर्चित गायिका वीना तिवारी सहित कई अन्य वक्ताओं ने भी अपने विचार रखे । इस अवसर पर विनोद पन्त की सद्यप्रकाशित पुस्तक ’फसकटेल’ का भी विमोचन हुआ । कार्यक्रम का संचालन प्रख्यात उद्घोषक हेमन्त बिष्ट एवं कोनी पाठक ने संयुक्त रूप से किया ।
हर आयोजन के पीछे है बात होती है उसके ’आउटपुट’ की । इससे हमें मिला क्या ? हर फन के लोगों का, जिन्हें हम वर्चुअल देखते व सुनते आये थे, उनका ’रियल’ में साक्षात्कार के पल अविस्मरणीय रहे ही और जिन लोगों के प्रति संदेह था कि क्या ये भी लोकभाषा में उसी प्रवाह से बात कर सकते हैं , उन्हें अपनी बोली में सुनना बेहद रोचक व हर कुमाउनी को गौरवान्वित करने वाले पल थे । समाज में एक संदेश गया कि यदि शीर्ष पदों पर पहुंचे व्यक्ति अपनी लोकभाषा में बोल सकते हैं, तो हम क्यों नहीं ? इस तरह के संवाद कार्यक्रम निश्चय ही कुमाउनी बोली को आमजन तक पहुंचाने व अपनी बोली बोलने में शर्म के बजाय गर्व की अनुभूति कराने में सार्थक होंगे, इसमें संदेह नहीं।
कुमाउँनी बोली के प्रचार प्रसार में ये युवक द्वय- हेम पन्त व रिस्की पाठक, बिना किसी आर्थिक स्रोतों के स्वयं के प्रयासों से संचालित कर रहे हैं और कार्यक्रम के आयोजन, अतिथियों के चयन , उनसे सम्पर्क , प्रचार-प्रसार तथा तकनीकी पक्ष को संभालते हुए मुख्य तथा एकमात्र सूत्रधार रहे हैं, इन्हें साधुवाद तो बनता ही है।