(लेख) एससीओ समिट..चीन की धरती से विश्व चेतना का संदेश



पार्थसारथि थपलियाल –
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारतीय वस्तुओं पर कुल 50 प्रतिशत टैरिफ लगाने की घोषणा के बाद उपजे एशियाई राजनीति के परिदृश्य भारतीय विदेश मंत्री डॉ एस जयशंकर और भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल द्वारा स्थापित एजेंडे में एशियाई राजनीति करवट लेती नजर आती है। 29 व 30 अगस्त को प्रधानमंत्री दो दिवसीय जापान यात्रा पर थे। जापान- भारत सहयोग शिखर सम्मेलन की बैठक 29 अगस्त को आयोजित हुईं। भारत और जापान ने अनेक मुद्दों पर सहयोग बढ़ाने पर सहमति दी। इस यात्रा के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के किसानों, पशुपालकों और मछुआरों के हितों की रक्षा को भारत सरकार की न झुकने वाली नीति बताया।
31 अगस्त 2025 को चीन के तियांजिन शहर में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन में जहां रूस के राष्ट्रपति पुतिन, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति सी. जिनपिंग ने यह जाता दिया कि यूरोप और अमेरिका की चौधराहट के दिन लद चुके हैं। अब एशिया विश्व की नई व्यवस्था स्थापित करने में सक्षम है। एससीओ समिट, तियानजिन से उभरी यह आवाज अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की उन नीतियों का परिणाम है जो स्वयं को लोकतांत्रिक देश कहता है लेकिन वह वैश्विक मत का सम्मान नहीं करता। अपनी मर्जी से आर्थिक प्रतिबंध या टैरिफ रेट थोप देता है। यह दादागिरी अब अधिक देर तक नहीं चलेगी।शंघाई सहयोग संगठन (SCO) का मंच आज की दुनिया के बदलते शक्ति-संतुलन का आईना है। रूस और चीन जैसे दिग्गज देशों की मौजूदगी, पाकिस्तान जैसा असहज पड़ोसी और मध्य एशियाई गणराज्यों की सहभागिता- ये सभी मिलकर इस संगठन को भू-राजनीति का महत्वपूर्ण केंद्र बनाते हैं। ऐसे समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण केवल औपचारिक वक्तव्य नहीं था, बल्कि भारत की विदेश नीति और आत्मगौरव का उद्घोष भी था।
मोदी ने अपने संबोधन में कहा कि कनेक्टिविटी तभी स्वीकार्य है जब वह संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करे। यह वाक्य मात्र औपचारिक टिप्पणी नहीं, बल्कि चीन की महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव और उसमें शामिल पाकिस्तान-चीन आर्थिक गलियारे पर भारत की आपत्ति का स्पष्ट संकेत था। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से गुजरती इस परियोजना को भारत अपनी संप्रभुता का उल्लंघन मानता है। चीन की धरती से यह संदेश देना, भारत के स्वाभिमान की दृढ़ झलक है।मोदी ने विकास और शांति को आतंकवाद से सीधे जोड़कर स्पष्ट किया कि जब तक आतंकवाद को संरक्षण देने वाले देशों पर कठोर कदम नहीं उठाए जाते, तब तक क्षेत्रीय स्थिरता असंभव है। यह पाकिस्तान के लिए प्रत्यक्ष संदेश था और चीन के लिए अप्रत्यक्ष चुनौती, क्योंकि वह कई बार संयुक्त राष्ट्र में भारत विरोधी रुख अपनाकर पाकिस्तान-समर्थित आतंकियों को बचाता रहा है। भारत का यह आक्रामक रुख दर्शाता है कि अब वह आतंकवाद को केवल सुरक्षा का मुद्दा नहीं, बल्कि वैश्विक सहयोग का केंद्रीय प्रश्न मानता है।
मोदी का भाषण इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है कि भारत ने इसमें न तो अमेरिका की भाषा बोली और न ही रूस-चीन की। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप उस समय “अमेरिका फर्स्ट” नीति के तहत बहुपक्षीय समझौतों से पीछे हट रहे थे, वहीं भारत ने जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा सहयोग और साझा विकास पर बल देकर अपनी जिम्मेदार वैश्विक भूमिका दर्शाई। इसका निहितार्थ यह है कि भारत अब किसी गुट का अनुयायी नहीं, बल्कि स्वतंत्र रणनीतिक शक्ति के रूप में उभर रहा है।चीन की मेज़बानी में आयोजित इस सम्मेलन में मोदी ने शब्दों का चयन बड़ी सावधानी से किया। उन्होंने प्रत्यक्ष टकराव से बचते हुए पारदर्शिता और समानता जैसे सिद्धांतों का उल्लेख किया। यह संतुलित चुनौती थी, जहाँ भारत ने अपनी असहमति दर्ज भी कराई और कूटनीतिक गरिमा भी बनाए रखी। यही संतुलन आज भारत की विदेश नीति की सबसे बड़ी ताकत है।
मोदी का भाषण केवल विरोध तक सीमित नहीं था। उन्होंने डिजिटल सहयोग, सतत विकास और ऊर्जा सुरक्षा पर भी जोर दिया। यह संदेश था कि भारत एशिया में केवल “समस्या उठाने वाला” नहीं, बल्कि “समाधान प्रस्तुत करने वाला” राष्ट्र है। एशियाई नेतृत्व की यह आकांक्षा भारत को अन्य देशों से अलग खड़ा करती है।अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नेताओं के शब्द घरेलू जनता के लिए भी संदेश होते हैं। मोदी के भाषण ने भारत की जनता को यह भरोसा दिया कि उनका नेतृत्व झुककर नहीं, बल्कि आत्मविश्वास के साथ वैश्विक मंचों पर बात करता है। यह विदेश नीति के साथ-साथ घरेलू राजनीति में भी सशक्त छवि बनाने का साधन है।एससीओ सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण भारत की विदेश नीति के कई परतों को उजागर करता है। एक ओर यह आतंकवाद और संप्रभुता जैसे मूल मुद्दों पर दृढ़ रुख का परिचायक है, तो दूसरी ओर यह चीन के साथ संतुलन, रूस के साथ परंपरागत मित्रता और अमेरिका की नीतियों से अलग स्वतंत्र कूटनीति की ओर संकेत करता है। यह देखना और समझना समय का खेल होगा कि चीन का विश्वास कितना और कहां तक किया जाय।