(लेख) “अग्निपथ’’ की राह – कितनी उजली कितनी स्याह

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(लेख) “अग्निपथ’’ की राह – कितनी उजली कितनी स्याह
~भुवन चंद पंत~

’’अग्निपथ’’ योजना की घोषणा के साथ ही देश में जिस तरह बवाल व उबाल दिख रहा है , सोचने को विवश करता है कि आखिर युवाओं का इतना आक्रोश क्यों ? जिस तरह देश के विभिन्न हिस्सों में उग्र प्रदर्शन उप्रदव, तोड़फोड़ आगजनी का माहौल देखने को मिल रहा है.लगता है ये स्वयं को अग्निवीर साबित करने पर तुले हुए हैं । लेकिन राष्ट्रीय सम्पत्ति को नुकशान पहुंचाने वाले इन्हें अग्निवीर तो नहीं बल्कि अग्निभीड़ कहना ज्यादा उपयुक्त होगा ।

ये वे लोग हैं जो सेना में भर्ती की आश लगाये बैठे थे और अचानक से इस योजना की घोषणा के साथ अपने सपनों के चकनाचूर होने पर उबाल आ गया । लेकिन लोकतंत्र में विरोध का भी एक लोकतांत्रिक तरीका होता है जो किसी भी निरंकुश शासन को झुका सकता है । वे संसद भवन के आगे धरना दे सकते थे , धेराव कर सकते थे. विरोध प्रदर्शन के और भी कई अहिसंक व लोकतांत्रिक तरीके हैं। इससे शक होना स्वाभाविक है कि इसके पीछे कुछ अदृश्य ताकते काम कर रही हों । सच तो ये है कि सेना में जाने के जज्बे को रखने वाला नवयुवक कभी इस तरह के राष्ट्रीय संपत्ति के नुकशान की बात सोच भी नहीं सकता और यह भी सच है कि आक्रोश व जोश में नवयुवक तो क्या भले-भले लोग होश खो बैठते हैं ।

इस आक्रोश का सबसे बड़ा असर बिहार, उत्तरप्रदेश और उत्तराखण्ड में देखने को मिल रहा है । जाहिर है कि ये वो प्रान्त हैं जहॉ से सबसे ज्यादा लोग फौज में अपना करियर बनाते हैं । बात उत्तराखण्ड की हो तो यहॉ तो हर घर से कम से कम एक या दो सदस्य फौज में जाते ही हैं । कभी उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था को ’ मनीआर्डर इकोनॉमी’ का नाम दिया गया था , ये अर्थव्यवस्था उन्हीं पर चलती जो फौज से मनीआर्डर कर अपना घर चलाया करते । फौज को युवक महज एक रोजगार का जरिया मानकर नहीं बल्कि देशभक्ति की भावना से सराबोर वक्त आने पर यहॉ के रणबांकुरों ने वीरता का अप्रतिम इतिहास रचा है । एक दौर था जब उत्तराखण्ड में शिक्षा का प्रसार कम था और दूरस्थ नौकरी के नाम पर सेना में भर्ती ही उनका विकल्प था। आज तस्वीर बदल चुकी है । सेना के अलावा हर प्रतियोगी क्षेत्रों में यहॉ के युवा परचम लहराने लगे हैं । लेकिन आज भी दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे युवा बड़ी तादाद में हैं , जो साधनों के अभाव में ज्यादा पढ-लिख नहीं पाते या बमुश्किल हाईस्कूल या इन्टर करके सेना में भर्ती की बाट जोहते हैं । दुर्भाग्य से यदि यह अवसर उन्हें नहीं मिलता तो बेरोजगारी में विभिन्न नशों व सामाजिक बुराइयों से अवसादग्रस्त जीवन जीने को मजबूर होते हैं । कई-कई वर्षों की वर्जिश और तैयारी के बाद मिली असफलता के बाद निराशा व हताशा स्वाभाविक है ।

रोजगार सृजन के उद्ेश्य से तत्कालीन सरकार द्वारा 2 फरवरी 2006 को ’नरेगा’ (नेशनल रूरल इम्पलॉयमेंट गारन्टी एक्ट) की शुरूआत् की गयी जिसे बाद में ’मनरेगा’ (महात्मा गान्धी नेशनल रूरल इम्पलॉयमेंट गारन्टी एक्ट) नाम दिया गया । अकुशल श्रमिकों को मौसमी रोजगार देने की इस योजना उस समय रोजगार की दिशा में अच्छा कदम माना गया । ’मनरेगा’ का उद्देश्य मुख्यतः रोजगार मुहैया कराना था , उस बजट के उपयोग के लिए ’मनरेगा’ के तहत जबरन ऐसे कार्य भी करवाये गये , जिसकी स्थानीय उपयोगिता न के बराबर थी । मुझे ग्रामीण क्षेत्रों में ’मनरेगा’ के तहत ऐसे कूड़ाघर बने भी मिले, जो गांव से बहुत दूर जंगल के बीच बने थे और जिनका उपयोग किसी ने कभी नहीं किया । बजट का पैसा खपाना था, रोजगार देना था, बना दिये गये । हॉ, इन योजनाओं के बहाने ग्रामीणेां की आंशिक रोजगार अवश्य मिला । इसीलिए इस योजना को ’ गड््ढा खोदना व गड्ढा भरना ’ जैसे कार्यों के लिए भी जाना गया । इन मौसमी मजदूरांे की मजदूरी 200 रूपये के आस-पास प्रत्येक राज्य द्वारा अपनी सामर्थ्य के अनुसार तय की गयी । सरकारों ने इस योजना पर अपनी पीठ बहुत थपथपाई और जनता की ओर से भी कोई विरोध के स्वर नहीं उभरे । कारण, यह एक अतिरिक्त लाभ देने की योजना थी, किसी का कोई पुराना हक छीना नहीं जा रहा था। अग्निपथ योजना की घोषणा से कुछ ऐसा ही लग रहा है कि उनका हक छीना जा रहा है।

’जोर का झटका धीरे से लगे’ की तर्ज पर जब अग्निपथ योजना की घोषणा हुई तो उन नवयुवकांे के दिलों में आक्रोश उभरना स्वाभाविक था, जो वर्षों से सेना में नियमित भर्ती की आश संजोये बैठे थे । उनकी सोच के अनुसार अब सेना में नियमित भर्ती नहीं होगी, बल्कि इसी प्रक्रिया के तहत सेना में प्रवेश हो सकेगा । सरकार द्वारा भी यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि अग्निपथ योजना के अतिरिक्त पूर्व की भांति नियमित भर्ती प्रक्रिया भविष्य में होगी भी या नही ? कुछ देर के लिए ये मान लिया जाय कि माना भविष्य में अब सेना की भर्ती इसी प्रक्रिया से होगी तो उनसे छिन क्या गया ?’ अग्नि पथ योजना’ में अग्निवीरों की भर्ती की आयुसीमा पहले साढ़े सत्रह वर्ष से 21 वर्ष निर्धारित की गयी थी । पिछले दो सालों से कोरोना संकट के कारण भर्ती नहीं होने से कई नवयुवक तय सीमा पार कर चुके थे । नवयुवकों की इस दलील पर सरकार द्वारा केवल पहले बैच के लिए ऊपरी आयु सीमा 2 वर्ष बढ़ाकर 23 वर्ष कर दी गयी ।

इस प्रकार पिछले दो वर्ष में भर्ती न होने से जो आयु सीमा के कारण इस योजना का लाभ लेने से वंचित हो रहे थे ,उनको भी अवसर दे दिया गया । गौर करने वाली बात है कि सत्रह से इक्कीस वर्ष की उम्र में नवयुवक करते क्या हैं ? या तो वे पढ़ाई कर रहे होते हैं अथवा किसी प्राईवेट संस्थान में नौकरी और यदि वो भी नसीब न हुई तो अवारागर्दी । फौज को छोड़ दिया जाय तो 18 वर्ष की उम्र पार करने के बाद ही बालिग होकर वे सरकारी नौकरी के काबिल होते हैं । यदि इस उम्र में बेरोजगार रहे तो यही वह संक्रमण काल है, जब सामाजिक बुराईयां उन्हें अपनी ओर आकर्षित करती हैं । नवयवुकों में नशे जैसी लत इसी उम्र में पनपती है, जिसकी गिरफ्त मंे आज युवकों का एक बड़ा वर्ग आ रहा है । अगर इस उम्र में अग्निपथ जैसी योजना उनको अवसर देती है , तो निश्चय ही यह योजना उन्हें भटकाव से एक रचनात्मक दिशा में मोड़ सकती है । आइये ! जानते हैं, अग्निपथ योजना से युवा को क्या मिलेगा और देश हित में यह कितनी सार्थक होगी ?

महज साढे़ सत्रह साल का युवक जब हाईस्कूल पास करने के बाद अग्निपथ के माध्यम से सेना में प्रशिक्षण लेगा तो इन सामाजिक बुराइयों के चंगुल से निकलकर राष्ट्रनिर्माण और एक अनुशासित दिनचर्या का हिस्सा बनेगा । वह सेना के कठिन प्रशिक्षण के बाद नियमित दिनचर्या अपनायेगा जो उसके भविष्य का मार्ग प्रशस्त करेगा । योजना में प्राविधान है कि इस प्रशिक्षण के दौरान हाईस्कूल पास युवक को इन्टर और इन्टर पास युवक को डिप्लोमा का सार्टिफिकेट सेना की ओर से दिया जायेगा । मतलब, प्रशिक्षण व नौकरी के दौरान साथ-साथ शिक्षा भी । योजना में 4 वर्ष की सेवा के उपरान्त 25 प्रतिशत युवकों को उनकी क्षमता को देखते हुए नियमित सेवा में लिये जाने की व्यवस्था है । अगर उस 25 प्रतिशत में वह आता है तो समस्या ही नहीं है , वह कम से कम 15 साल की फौज की नौकरी कर पायेगा । दुर्भाग्यवश यदि वह शेष 75 प्रतिशत के अन्तर्गत आता है, यानि आगे सेना में रहने का मौका नहीं मिलता तो चार साल के वेतन के अलावा उसे लगभग 11.71 लाख रूपये (आयकर मुक्त) सेवानिधि की रकम लेकर घर आयेगा।

सेना में नौकरी /प्रशिक्षण के दौरान सैंनिकों को मिलने वाली सारी सुविधाऐं रहना, खाना , कैन्टीन सुुविधा के बाद उसको मिलने वाला वेतन ( चार साल में कुल मिलाकर 11,72,160रू0) उसके आश्रित परिवार को सहारा भी देता रहेगा । दुर्भाग्यवश 4 साल के बाद उसे सेना में समायोजित होने का मौका नहीं मिलता और घर लौटना पड़ता है तो भी उसकी जिन्दगी के स्वर्णिम वर्ष अभी बीते नहीं हैं। जिन्दगी संवारने के लिए उसकी सारी जिन्दगी (21 अथवा 23 साल के बाद ) के बाद अवसरों से भरी है । वह उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकता, अपनी रूचि के अनुरूप कोई व्यावसायिक शिक्षा ले सकता हैं, प्रतियोगी परीक्षाओं में अपनी प्रतिभा आजमा सकता है , जिसमें अन्य उम्मीदवारों के अलावा उसे सेना प्रशिक्षण का बोनस लाभ भी मिलने वाला है । पैरामिलिट्री फोर्सेज में वरीयता के आधार पर इस सैनिक प्रशिक्षण का लाभ उसे मिलना ही है । क्या 21 अथवा 23 साल के युवक के लिए अपनी जिन्दगी संवारने का यह स्वर्णिम अवसर नहीं है? दुर्भाग्यवश यदि कहीं नौकरी पाने में कामयाबी नहीं मिलती अथवा स्वयं वह नौकरी करने का ईच्छुक न हो तो 4 साल के बाद सेवा निधि से मिलने वाली 11.71 लाख रूपये की छोटी रकम से ही सही, स्टार्टअप को तौर पर अपना निजी का उद्यम तो शुरू कर ही सकता है ।

एक प्रश्न यह भी उभरकर आ रहा है, कि क्या चार साल के लिए नौकरी पर रखे गये सैनिक में सीमा पर लड़ते समय देश के लिए मर मिटने के वही जज्बात और जुनून होगा जो एक नियमित सिपाही में होता है ? उत्तर है- हॉ , उनसे भी कहीं अधिक । कारण- उसने अपनी परफार्मेन्स देनी है , आगे उस 25 प्रतिशत की श्रेणी में आने के लिए । फिर यह उम्र ऐसी होती है, जहां इन्सान जोश‘-खरोश से लवरेज होता है , वह मर मिटने को उद्यत रहता है, परिणामों की चिन्ता वगैर । उसके ऊपर परिवार की जिम्मेदारी का उतना बोझ नहीं रहता इसलिए सीमाओं पर भी अपना सर्वोत्कृष्ट देने को तैयार रहेगा । संविदा शिक्षकों व नियमित शिक्षकों की क्षमता से तो आप परिचित ही हैं । संविदा अथवा अस्थाई शिक्षक जितनी लगन व निष्ठा से पढ़ाता और कर्तव्यनिष्ठ होता है, प्रायः नियमित शिक्षकों से यह अपेक्षा कम ही की जाती है । यही बात यहां पर भी लागू होगी।

आपको संभवतः याद होगा , 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद सरकार द्वारा गांव-गांव में जाकर राइफल ट्रेनिंग हर सिविलियन स्त्री -पुरूषों को दी गयी थी , जिसका उद्देश्य यही था कि संकट के समय सेना की दूसरी पंक्ति तैयार करना । 04 साल से प्रशिक्षित युवक एक तरह से सेना की दूसरी पंक्ति के रूप में कारगर साबित होंगे । देश में प्राकृतिक आपदाऐं हों अथवा दंगा-फसाद होने पर ये अपनी महत्वपूर्ण भूमिका इसमें निभा सकते हैं । सरकार चाहे तो इन्हीं से टैरीटोरियल आर्मी बना सकती है । यह भी तय है कि 04 साल कठोर अनुशासन में प्रशिक्षण के उपरान्त वह युवक कभी देश के हितों के विपरीत हिंसा, आगजनी तथा राष्ट्रीय सम्पत्ति को नुकशान पहुंचाने की सोच भी नहीं सकता । वह राष्ट्र प्रेम की भावना से सदैव लवरेज रहेगा ।

यह सही है कि कोई भी योजना ऐसी नहीं होती , जिसमें खामियां नहीं होती । इस योजना को लेकर भी कुछ शंकाऐं होना स्वाभाविक है । पहला तो यह कि क्या अब सेना में नियमित रूप से सैंनिकों की भर्ती नहीं होगी, सभी भर्तियां इसी प्रक्रिया के तहत भरी जायेंगी ? यदि ऐसा है तो उन नवयुवकों का क्या होगा ? जो सालों से तैयारी में लगे हैं और सेना की भर्ती प्रक्रिया से गुजर रहे हैं । इस योजना के विरोध में ज्यादा आक्रोश उसी वर्ग का है और यह स्वाभाविक भी है । ऐसे युवकों के लिए जो भर्ती प्रक्रिया के बीच रूके हैं , उन्हें तो एक अवसर दिया ही जाना चाहिये। यदि सरकार इस पर गम्भीरता से सोचती है तो आक्रोश को कम किया जा सकता है ।दूसरी शंका यह भी है कि इन चार सालों के प्रशिक्षण के दौरान यदि कोई सैनिक शहीद होता है तो क्या वह शहीद को मिलने वाली सारी सुविधाओं का हकदार होगा, क्या उसके आश्रितों को पारिवारिक पेंशन का लाभ सरकार द्वारा दिया जायेगा ? जाहिर है कि इसकी कोई संभावना नजर नहीं आती । ऐसी परिस्थिति में न सीमा पर जीने-मरने का वह उत्साह दिखेगा और परिवार से चिन्तामुक्त होने की मनःस्थिति ।

निष्कर्षतः फैसला आपको करना है, उजले व स्याह पक्षों के तुलनात्मक अध्ययन के बाद । यदि स्याह पक्ष की तुलना में उजले पक्ष अधिक लगें और यह समाज हित व देशहित में भी हैं तो अंगीकार करें । किसी राजनैतिक विचारधारा के बहकावे में आकर अथवा राजनैतिक चश्मे से देखने की तो सोचें भी नहीं । राजनीति सत्ता की भूखी होती है, लेकिन आपने तो अपनी भूख व अपने भविष्य की बात सोचनी है ।

नोट-लेखक के उपरोक्त विचार उनके निजी हैं.

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